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विक्रमादित्य कथा

राधावल्लभ त्रिपाठी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :392
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 747
आईएसबीएन :81-263-1095-2

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विक्रमादित्य के जीवन पर आधारित उपन्यास....

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

राधावल्लभ त्रिपाठी संस्कृत को आधुनिकता का संस्कार देने वाले विद्वान और हिन्दी के प्रखर लेखक, कथाकार हैं। ‘विक्रमादित्यकथा’ इधर लिखी उनकी असाधारण कथा-कृति है। संस्कृत के महान गद्यकार महाकवि दण्डी पदलालित्य के लिए विख्यात हैं। ‘दशकुमारचरित’ उनकी चर्चित कृति है। परन्तु इधर डॉ. राधावल्लभ त्रिपाठी को उनकी एक और संस्कृत कृति ‘विक्रमादित्यकथा’ की जीर्ण-शीर्ण पाण्डुलिपि हाथ लग पायी। इस कृति को हिन्दी में औपन्यासिक रूप देकर डॉ. त्रिपाठी ने एक ओर मूल कृति के स्वरूप की भी रक्षा की है और दूसरी ओर उसे एक मार्मिक कथा के रूप में अवतरित किया है। इस कृति से उस युग का नया परिदृश्य उद्घाटित होता है और पाठक का मनोलोक अनोखे सौंदर्य से भर उठता है।

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के उपन्यास ‘बाणभट्ट् की आत्मकथा’ की परम्परा को यह रचना आगे बढ़ाती है। विश्वास है कि इसका एक सांस्कृतिक धरोहर और रोचक औपन्यासिक कृति के रूप में हिन्दी पाठक भरपूर स्वागत करेंगे।

 

एक मिथ्या भूमिका
अर्थात्
पड़ना पीछे पाठक के डण्डा लेकर

 

महाकवि दण्जी संस्कृत साहित्य में एक महान गद्यकार और अलंकारशास्त्र के आचार्य के रूप में जाने जाते हैं। ‘दशकुमारचरित’ इनकी औपन्यासिक गद्य रचना है।
दण्डी का सीधा अर्थ होगा-जो दण्ड या डण्डा लिये हुए हो। प्रस्तुत लेखक की बुद्धि या कुबुद्धि में कभी-कभी ऊटपटाँग बातें उठती रहती हैं, जिनका परम्परागत पण्डितजनों में स्वीकृति मान्यताओं से सामंजस्य नहीं बैठता। दण्डी का ‘दशकुमारचरित’ पढ़ने समय एक बार मेरे दिमाग में यह बात आयी कि दण्डी दशकुमारचरित के लेखक का वास्तविक नाम नहीं लगता। संस्कृत के बहुत से जाने-माने कवियों के असली नाम काल के गर्त में समा चुके हैं। कालिदास का कालिदास नाम शायद उनका असली नाम न रहा हो। भवभूति के बारे में तो परम्परा में प्रसिद्ध है कि एक श्लोक में भवभूति शब्द का चमत्कारपूर्ण प्रयोग करने के कारण उन्हें भवभूति की उपाधि मिली। हो सकता है कि डण्डा हाथ में लिये रहने के कारण दशकुमारचरित के कवि को दण्डी (दण्ड या डण्डा धारण करने वाला) कहा जाने लगा हो, फिर उनके वास्तविक नाम का लोप हो गया हो।

दण्डी का एक अर्थ संन्यासी भी होता है। वह इसलिए कि पहले के संन्यासी जन हाथ में दण्ड (और कमण्डलु) लेकर चलते थे। अब सच्चे संन्यासी तो बिना दण्ड और कमण्डलु के ही रह गये हैं, क्योंकि डण्डा एक राजनीतिक पार्टी ने ले लिया, कमण्डलु किसी और ने। अस्तु, दण्डी के बारे में किसी पण्डित ने यह लिखा है कि वे संन्यासी थे। पर उनकी रचना को पढ़कर दूर-दूर से भी उनके संन्यासी होने की संभावना नहीं लगती।
इसलिए मैं फिर अपने आग्रह या दुराग्रह पर जा टिकता हूँ कि डण्डा लिये रहने के कारण ही दशकुमारचरितकार का नाम दण्डी पड़ गया।

प्रिय पाठक, मेरी डण्डा लेकर आपके पीछे पड़ने की कोई मंशा नहीं है। दरअसल ये डण्डी हैं, जो डण्डा लिये हुए पाठक या श्रोता के पीछे पड़ते हैं। दशकुमारचरित आरम्भ करते हुए उन्होंने एक श्लोक लिखा है। पूरी रचना में आरम्भ में यही एकमात्र पद्य या छन्द है, इसके बाद नायिका अवन्तिसुन्दरी के द्वारा नायक राजवाहन को आर्या छन्द में लिखे प्रेमपत्र या एक दो और स्थलों के अलावा, शेष कृति गद्य में है। अस्तु, आरम्भ का जो श्लोक है, उसमें दण्डी ने डण्डे के अर्थ में आठ बार दण्ड शब्द का प्रयोग किया गया है। श्लोक ऐसा है कि मेरे जैसे व्यक्ति, जिसका संस्कृत भाषा पर अधिकार अपेक्षाकृत बहुत सीमित है, बिनी टीका देखे इसका अर्थ नहीं समझ सकता। और मेरे जैसे अल्पज्ञ, लोगों की सहायता के लिए ही दण्डी की रचना पर प्राचीनकाल से संस्कृत में बहुत बढ़िया टीकाएँ लिखी गयीं। श्लोक स्रग्धरा छन्द में है। समझ में आए या न आए, स्रग्धरा छन्द की लय में अगर आप इसका पाठ करें, या पाठ सुनें, तो लगेगा कि डण्डों की बौछार आपके ऊपर हो रही है। कविता पढ़ते हुए या सुनते हुए डण्डों की मार का ऐसा उम्दा अनुभव शायद और कहीं मिलेगा। जो लोग संस्कृत न जानते हों, वे भी दण्ड का अर्थ डण्डा होता है, इतना भर समझकर यदि नीचे लिखा श्लोक पढ़ें या पढ़ने का प्रयास करें, तो दण्डी की दण्डधारिणी या डण्डेमार कविता का कुछ आनन्द तो ले ही सकते हैं-

 

ब्रह्माण्डच्छत्रदण्ड:शतधृतिभवनाम्भोरुहोनालदण्ड:
क्षोणीनौकूपदण्ड: क्षरदमरसरित्पट्टिकाकेतुदण्ड:।
ज्योतिश्चक्राश्चदण्डस्त्रभवनविजयस्तम्भदण्डोऽङिघ्रदण्ड:
श्रेयस्त्रैविक्रमस्ते वितरतु विबुधद्वेषिणां कालदण्ड:।।

 

इस श्लोक में दण्डी अपने पाठक या भावक से कहते हैं कि भगवान वामन का चरणदण्ड या पाँव रूपी डण्डा तेरा कल्याण करे। इस त्रैविक्रमचरणदण्ड या वामन के पाँव रूपी डण्डे के लिए उन्होंने सात विशेषण दिये हैं, जो बताते हैं कि वह चरण ब्रह्माण्ड रूपी छाते का डण्डा है, ब्रह्मा के निवास कमल की नाल का डण्डा है, पृथ्वी रूपी नौका के पाल को सँभालने वाला (वह) डण्डा है, (जिसे कूपदण्ड कहा जाता है) यदि आकाशगंगा एक पताका है, तो वह उसके बाँस का डण्डा है, जिसमें यह पताका बँधी है। यदि नक्षत्रमण्डल एक पहिये की धुरी को सँभालने वाला डण्डा है। वह तीनों लोकों की विजय के स्तम्भ का दण्ड है, और विद्वानों या देवताओं से द्वेष करने वालों के लिए वह कालदण्ड भी है।

दण्डी का गद्य पढ़ते हुए डण्डों की इस मार का बराबर अनुभव होता है। पूरे दशकुमारचरित की रचना ही दण्डी के मार के नाना रूप और छटाएँ दिखाती हुई आगे बढ़ती है। यह बात दूसरी है कि परम्परा में दण्डी के गद्य की सबसे बड़ी विशेषता मानी जाती है उसका पद लालित्य। दण्डी ने जीवन की कठोर वास्तविकताओं के बारे में कर्कश शैली में लिखा है। यह भारत भूमि धन्य है, जिस पर ऐसे-ऐसे पण्डितों ने जन्म लिया, जिन्हें दण्डी के डण्डों की मार भी बड़ी ललित लगी। मैं उन सब पण्डितों के साथ अपने दण्ड का अचूक प्रयोग करने वाले कवि दण्डी को भी दण्डवत् करके यह पुस्तक आरम्भ करता हूँ।
मुझे विदित है कि ऊपर जो लिखा गया है, और जो कुछ आगे लिखा जा रहा है, उस पर कई प्रश्न उठेंगे। ऊपर लिखे गये पर सबसे पहले तो यही प्रश्न किया जा सकता है कि जब आप डण्डा धारण करना और चलाना जानते ही नहीं हैं, तो भूमिका के साथ शीर्षक में ‘पड़ना पीछे पाठक के डण्डा लेकर’- यह जोड़ने का मतलब ?

प्रिय पाठक, सादर निवेदन है कि इस शीर्षक का कोई मतलब नहीं है। असल में ‘पड़ना पीछे पाठक के’ ये शब्द बिना मतलब के यों ही दिमाग में आ उपजे, और मैंने अनुप्रास के लालच में इन्हें यहाँ रख दिया।

यह सत्य है कि मैंने डण्डे का प्रयोग न व्यक्तिगत जीवन में किया, न साहित्य में। पर यह पुस्तक न लिखी जाती यदि मेरे एक डण्डाधारी मित्र श्री पाठक के कारण मेरे जीवन में एक विचित्र प्रसंग न जुड़ गया होता। पाठक जी से जुड़ा प्रसंग मैं यहाँ लिख रहा हूँ। इसे पढ़कर आप समझ सकते हैं कि भूमिका का जो शीर्षक ऊपर दिया गया है, वह झूठ नहीं है, अलबत्ता उसका वह मतलब नहीं, जो आप समझ रहे हैं।
संस्कृत में एक श्लोक है जिसमें कहा गया है कि तीन तरह की अग्नि होती है, तीन वेद हैं, तीन देव हैं, और तीन गुण हैं। उसकी तरह दण्डी के रचे तीन प्रबन्ध या ग्रन्थ तीनों लोकों में विख्यात हैं।

संस्कृत साहित्य की कई गुत्थियों में एक यह भी है कि दण्डी की तीसरी कृति कौन-सी है। दण्डी ‘काव्यादर्श’ नाम से एक काव्यशास्त्रीय ग्रन्थ के प्रणेता माने जाते हैं। ‘दशकुमारचरित’ भी उनकी कृति मानी ही जाती है। ये दोनों तो दण्डी की कृतियाँ हैं ही, ‘अवन्तिसुन्दरीकथा’ नाम से एक कथा भी दण्डी ने लिखी थी-यह माना जाता है। ‘अवन्तिसुन्दरीकथा’ जिस रूप में अधूरी मिलती है, उसकी शैली देखकर विश्वास करना कठिन है कि दशकुमारचरित के कर्त्ता ने इसे रचा होगा। बहरहाल, दण्डी का तीसरा प्रबंध कौन-सा है-यह संस्कृति साहित्य की कभी न सुलझने वाली एक गुत्थी है।
मैंने तो कभी सोचा ही न था कि इस गुत्थी के कारण मेरे जीवन में ऐसा प्रसंग घट जाएगा, जो मुझे प्राणान्तक संकट में डाल देगा। मैंने तो जिन्दगी भर संस्कृत पढ़ाकर रोटी खायी पर संस्कृत की ऐसी गुत्थियों में न दिमाग खपाया, न उनकी कोई परवाह  की। मुझे क्या करना यह जानकर कि कौन-सा है दण्डी का तीसरा प्रबंध ! हुआ करे कोई मेरी बला से ! शायद इस पलायनवृत्ति की ही यह सजा है कि दण्डी का डण्डा अब की बार जोरों से मेरे हाथ पर पड़ा है।

इस, प्रसंग ने मुझे बड़े ऊहापोह में डाल दिया है। कहना चाहिए मेरी तो जान ही साँसत में है। पाठक जीने जो सामग्री मुझे लन्दन से लाकर दी है, वह ऐसा कड़वा कौर है जिसे मैंने मुँह में डाल तो लिया, पर अब न निगलते बनता है न उगलते।
पाठक जी मेरे मित्र हैं। वकालत करते हैं। वैसे वे पाठक नहीं हैं। उनके पिता तो अपना गोत्र शर्मा लिखते थे। मुझे शक है कि पाठक जी ने अपने पुस्तक प्रेम के कारण पाठक यह उपनाम अपने नाम के आगे जोड़ लिया है। पाठक जी सचमुच भयंकर पढ़ाकू हैं। पढ़ना और बोलना-सिवा इसके और उन्हें और कोई काम जैसे है ही नहीं। अच्छी भली वकालत चलती थी। उससे संन्यास ले लिया। संन्यास लेने पर हाथ में डण्डा लेकर चलते थे। पाठक जी ने भी यही किया। एक छड़ी वे हमेशा सँभाले रहते हैं, हालाँकि उन्हें चलने के लिए छड़ी के सहारे की जरूरत नहीं है। संन्यासी अपनी चिन्ता छोड़ देता है, पाठक जी भी अपनी चिन्ता छोड़कर अब दुनिया की चिन्ता करते हैं। सारी दुनिया की जानकारी उन्हें रहती है। प्राचीन इतिहास संस्कृति और पुरातत्त्व के ज्ञान के तो भण्डार ही हैं वे। वे मेरे यहाँ आते हैं, तो साहित्य, संस्कृति, इतिहास, पुरातत्त्व, राजनीति, समाज-इन सब पर ऐसी दुर्लभ जानकारियों का पुलिन्दा परोसते जाते हैं कि उन्हें इकट्ठा करता जाता, तो अब तक कई विश्वकोश बन जाते। पर मैं दिमाग का इतना कच्चा हूँ कि इधर पाठक जी अपने धुआँधार भाषण का प्रवाह उँडेलते हैं, उधर वह मेरे दिमाग में बिना घुसे रिसता चला जाता है।

यों पैसा पाठक जी ने वकालत में खूब कमाया। पैसा बहाया भी। पढ़ने के अलावा अब बुढ़ापे में आकर उन्हें सैर सपाटे का शौक लगा है। कई जगह पत्राचार करके सेमिनार, संगोष्ठियों वगैरह की जानकारी हासिल करते रहते हैं। विदेशों में भी अब वे खूब आते-जाते हैं। पिछले ही महीने आये तो बता रहे थे कि लन्दन में पुरातत्त्ववेत्ताओं का सम्मेलन है, सोचते हैं, उसमें हो आएँ। कुतुबमीनार किसने बनवायी इसको लेकर उनकी अपनी स्थापना है। उस पर वहाँ अपना लेख पढ़ेंगे।
संयोग की बात ! लन्दन-यात्रा के दो दिन पहले वे मेरे घर आये, और कहने लगे कि इस बार इण्डिया ऑफिस लाइब्रेरी जाऊँगी। देखना है साहब बहादुर लोग हमारे यहाँ से जो लाखों पाण्डुलिपियाँ ले गये, उनकी वहाँ क्या हालत है।
मैंने कहा-पाठकजी, मुझे एक पाण्डुलिपि की प्रति चाहिए-सुन्दर कवि के ‘नाट्यप्रदीप’ की। उसकी प्रति यहाँ कहीं मिल नहीं रही है। इण्डिया ऑफिस लाइब्रेरी की पाण्डुलिपि की सूचियों में उसका विवरण है।
पाठक जी ने कहा-अगर मिल गयी, तो जेरॉक्स करवाकर लेता आऊँगा।

मैंने उन्हें ‘नाट्यद्वीप’ ग्रन्थ का विवरण लिखकर दिया, जो इण्डिया ऑफिस लाइब्रेरी के केटेलॉग से मैंने नोट किया था।
इसके बाद यह प्रसंग ही मेरे दिमाग से उतर गया। ‘नाट्यप्रदीप’ को लेकर ही कोई ऐसी उत्सुकता मेरे मन में अब नहीं रह गयी थी।
तीन महीने बीत गये। एक दिन मैं अपने कमरे में बैठा अखबार बाँच रहा था। अचानक पाठक जी प्रकट हो गये। ‘‘कहो डोक्टर, क्या हाल हैं ?’’- बेधड़क मेरे कक्ष में घुसते हुए उन्होंने बुलन्द स्वर में पुकारा।
पाठक जी मुझे ‘डोक्टर’ कहकर पुकारते हैं। उनका कहना है कि जो पी-एच.डी. का पुछल्ला लगाये हुए है, उसे चिकित्सा करने वाले डॉक्टर से अलग बताने के लिए ऐसा उच्चारण करना आवश्यक है।
‘‘अरे आप ! कब आ गये इंगलैंड से ?’’ मैंने पूछा।
‘‘कल आया था।’’
‘‘कैसी रही यात्रा ?’’

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